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थक गई चलते-चलते पठारों पर
झुलसा दिया आषाढ़ की धूप ने
अंग-अंग
हाँफती थकी साँसों का दीपक बुझ गया
बन गए हैं लौह पर्वत जैसे ये पठार
मुँह फेरे धुआँआर गुफाएँ और खाइयाँ
आती है याद
अभी दिन हुए ही कितने
ये-ये पठार मेरा आँगन
बचपन के दिन
करते थे उछल-कुद
खेतों में समेट कर शरद की फ़सल
घर जाने की तैयारी कर के
हो गई है बावरी/पठारों पर फैली चाँदनी
हिरण की कुलाँचे भरकर
चूमा तुम्हारी परछाइयों को
किए प्राण न्योछावर
हर्ष से खिल उठे हैं केसर के फूल
कोमल पलकों पर हैं
सपनों के चमकते हुए
तारों की किरणें
सँभालते हुए तुम्हारे ठहाके
विलीन हुए तारे नभ के धुँधलके में
थक गई
चलते-चलते पठारों पर
पर जाऊँ/शायद घर पहुँचने से पहले
आँख खुली तो
हाय!
रह गये पठार पीछे
किसी ने की फुसफुसी
लगी चंद्रपक्ष में
केसर के फूलों के
खिलने की सरसराहट
देखो तो !
घर पहुँच गए
आदिकाल से हूँ मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में
राह निहारते थक गए नैन
फिर जाग उठी चेतना
मृत काया में
घर में खिलते चेहरों ने
किया आलिंगन
अश्रुधाराएँ बही लुप्त हुआ प्रेम
क्या !
आँखें मसली
शून्य ही शून्य
भटका शायद
गुम हुुआ मैं
निर्जन था हर ओर
शून्य ही शून्य
कहीं न कोई मानव
न पशु, न पक्षी न ही छाया
दुकानदार दुकानें अधखुली छोड़कर
भाग गए थे।
घर-घर छाई थी
मौत की ख़ामोशी
दीवारों पर लगे थे जाले मकड़ों के
सुनहरी धूल ने आ घेरा
ख़ुले पडे़ थे खिड़कियाँ और द्वार
चीत्कार ही चीत्कार
कहाँ चले गए यहाँ के बसने वाले
किससे पूछूँ
क्या बन आई है उन पर
किसे ढूँढूँ सुनेगा कौन?
साँय साँय साँय
साँय साँय साँय
हुई पागल उपवन के बाहर की
तूफ़ानी हवा
डोल रही है टहनी-टहनी
उड़ा है पत्तों का गर्दगुबार
छाया अंधकार शून्य गगन में
लगे काँच झरोखों के
खनकने।
चौखट के भीतर उपवन का काँच दल
धूल से भरी पलकों की ओट से
आज भी ताकती है पीछे
ललसाई नज़रों से
उभरती नहीं छाया कोई पगध्वनियों की
धुएँ के सागर में उजाड़ बस्ती की
थकी जर्जर एक बेला
मृत भुजाओं से किए हुए है
शून्य का आलिंगन।
हाय अकेली हूँ मन घबराता है
तुम्हारी यादें भरमाती हैं और
तुम्हारी पुकार भी
पौढ़ियों पर चलते हुए
क़दमों की आहट से
खो देती है सुधबुध
गहरे नीरव ठहाकों की
होती है भ्रांति
हाँफती फिरती हूँ कमरे-कमरे
विवश हूँ पागल बनाते हैं मुझे
दोषी लम्हे
खो जाती हॅँू खामोशी के अँधेरे में
घिर जाती हूँ चारों ओर से
चिन्ताओं की विरक्ति से।
बाँह का सिरहाना लिए
रात बीती अनचाहे ख़यालों में
लगी जब आँख सुबह के झुटपुटे में
उठ रहे थे रेत के बवंडर
हुई गड़गड़ाहट गगन में
फैला घना धुआँ दहकता हुए खूनी हाथ पागल
सूरज जैसे कोई खोपड़ी
आग के थपेड़े
निकली चीत्कार
आँखे खोली फेनिल हुए होंठ
विषादग्रस्त हुआ मैं
मेरी दशा की भनक भी न पड़ी क्या
आँख भी फड़की नहीं कभी।
पत्र मिला
जाग गई वेदना
तुम्हारी यह चुप्पी ! घातक चुप्पी
साँसे रूक गई
हाय !
कब तक तुम्हारी याद में
अकेली !
काँच की खिड़की पर
जलती रहूँगी
आँधी में दीये की भाँति!